क्या हम वाकई स्वतंत्र हैं ?

क्या हम वाकई स्वतंत्र हैं ?

सहसा ही  मन दहल गया
 जब कड़वे स्वप्न का  बहाव,
ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर प्रवेश हुआ.।

मैंने देखा की मैं अपने परिवार के साथ एक पिक्चर देखने गयी


हिंदी पिक्चर तो भूल ही जाओ,
अंग्रेज़ी पिक्चर क टिकट लिया,
की अचानक एक अँगरेज़ ने "ब्लडी इंडियंस" बोलकर
पीछे की कतार तक धक्का दिया।

काली, खटमल और काक्रोच वाली ज़मीन पर,
मुँह उचका उचकाकर अपने साथ इंसाफ किया
इस शर्त पर की बीच बीच में,
 अंग्रेज़ी मेमों के पिल्लों की पॉटी साफ़  किया ।

सहसा नम आँख खुली जब उठकर
सभी देशभक्तों के  चित्र सहेजने लगी,
भगत सिंह, बोसे, पटेल, आज़ाद जिनकी भी हाथ आई
उसे प्रणाम कर के चूमने लगी।

अचानक इस बात का एहसास हुआ,
 वे महानुभाव  हमारे लिया क्या कर गए,
वे इंसान के रूप में भगवान या भगवान के रूप में इंसान थे
 जो हमे खुली हवा, नयी सांस प्रदान कर गए।

पर क्या तनिक भी
 हम इस बात के  महत्व पहचानते हैं?
हम तो केवल विदेशी सभ्यता,
 वहां की सोच, ऐशो-आराम, यही सराहते हैं।

जिस सभ्यता के पीछे आज हम भागते हैं,
 ६८ साल पहले उसी से तो बचाये गए थे
आज जिस भारत देश छोड़ हम विदेश में बसने के ख्वाब देखते हैं,
 उसी में तो जकड़े थे  ।

महापुरुषों ने हमे जिस दलदल से निकाला
 आज उसी में कदम धसा रहे हैं
भारतीय वेदिका को बल देने के विरुद्ध,
स्वयं को वापस उसी मायावी जगत में फँसा रहे हैं।

आइए कुछ तो प्रण लें,
हर हालात, हर अवस्था में,
अपने देश के लिए कटु विचार न पनपे

देश बुरा है, अच्छा है,  हमारा अपना है
अपना घर अस्त व्यस्त, बिखरा है तो साफ़ करते हैं
नाकि बुराई कर के घर बदल लेते हैं

हमारे देश की उन्नति, अवनति, हम नागरिक के हाथ में है
चलिए माँ भारत को कुछ तो दिलासा दें की हम उनके साथ में हैं ।







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